Zenab rehan

लाइब्रेरी में जोड़ें

दूसरा अध्याय




इस तरह पहले श्लोक के स्पष्टीकरण के बाद इसके तथा दूसरे के 'प्रसाद' और सब दु:खों की हानि की बात रह जाती है। दुनिया का नियम यही है कि कोई भी अच्छे से अच्छा और बड़े से बड़ा काम करने के बाद यदि मनस्तुष्टि या चित्त की प्रसन्नता न हो तो वह काम बेकार माना जाता है और सारा परिश्रम व्यर्थ ही समझा जाता है। विपरीत इसके अगर उसके बाद प्रसन्नता हो गई, तबीअत खुश हो गई तो सब किया दिया सफल माना जाता है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि असली चीज भला-बुरा काम नहीं है, किंतु उसके अंत में होने वाली मनस्तुष्टि ही, जिसे यहाँ प्रसाद कहा है और 'प्रसन्नचेतस:' में प्रसन्नता भी कहा है। दोनों का अर्थ एक ही है।

बात यों हैं कि वेदांत सिद्धांत के अनुसार हृदय में या अंत:करण में आत्मा का लहलहाता प्रतिबिंब मानते हैं। जैसे साफ-सुथरे दर्पण मुख का प्रतिबिंब पड़ता है और उसे देख के हम खुश या रंज होते हैं जैसा मुख प्रतीत हो। ठीक उसी तरह सत्त्वप्रधान अंत:करण का दर्पण भी चमकदार है। उसी में आत्मा का प्रतिबिंब मानते हैं। आत्मा को आनंद स्वरूप भी मानते हैं। वह आनंद का महान स्रोत है। इसीलिए आत्मा के प्रतिबिंब का अर्थ है उसके आनंदसागर का प्रतिबिंब। जो लोग उसका अनुभव करते हैं वह आनंद में मस्त रहते हैं - उसी में गोते लगाते रहते हैं। वेदांती यह भी मानते हैं कि आनंद या सुख तो केवल आत्मा में ही है। केवल वही आनंदरूप है। भौतिक पदार्थों में सुख का लेश भी है, 'यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति' (छांदोग्य. 7। 23। 1)।

लेकिन जिस तरह जल में पड़ा प्रतिबिंब तभी दीखता है जब जल निश्चल एवं निर्मल हो; जरा भी हिलता-डोलता न हो। वैसे ही आत्मानंद का प्रतिबिंब तभी अनुभव में आता है जब अंत:करण निर्मल और निश्चल हो। आईना मैला और बराबर नाचता हो तो प्रतिबिंब दिखेगा कैसे? इसीलिए योगी और आत्मदर्शी लोग बराबर ही चित्त की शांति और निर्मलता की कोशिश करते हैं। गीता ने भी इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। राग-द्वेष आदि ही चित्त की मैल हैं। उसकी चंचलता तो सभी को विदित है। क्षण भर में दिल्ली से कलकत्ता और वहाँ से तीसरी जगह जा पहुँचता है। कहीं भी टिकना तो वह जानता ही नहीं। बंदर या पारे से भी ज्यादा चंचल उसे कहा गया है। बिजली से भी ज्यादा तेज वह दौड़ता है। अब रही विषय सुख या भौतिक पदार्थों से मिलने वाले सुख की बात। वेदांतियों का इसमें कहना यही है कि जब मनुष्य को किसी चीज की सबसे ज्यादा चाट होती है तो वह दिन-रात उसी का खयाल करता रहता है। इस प्रकार उसका मन एकाग्र हो जाता है। फलत: अंत:करण की चंचलता दूर हो जाने के कारण उसमें आत्मानंद का लहलहाता प्रतिबिंब नजर आता है। मगर मन निश्चल एवं एक ही जगह बँधा होने पर भी बाहर की उसी चीज में लगा है जिसकी चाट या प्रचंड अभिलाषा है। इसीलिए उस आत्मानंद को अनुभव कर नहीं सकता, उसे देख या जान नहीं सकता। वह बाहर जो टँगा है। भीतर आ जो नहीं सकता। मगर ज्यों ही वह चीज मिली कि चट भीतर लौटा और उस आत्मानंद का अनुभव करके मस्त हो जाता है। इस तरह उसे जिस आनंद का अनुभव होता है वह तो आत्मानंद ही है। फिर भी अभिलषित पदार्थ के मिलने पर ही उसका अनुभव होने के कारण ऐसा भ्रम हो जाता है, ऐसा माना जाने लगता है कि उस पदार्थ में ही आनंद है। उस पदार्थ के ही चलते मन - अंत:करण - की एकाग्रता हुई है जरूर। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी हुआ है। इसीलिए उस विषय को आनंद के अनुभव का सहकारी कारण भले ही माना जाए। मगर उसमें आनंद तो हर्गिज नहीं है। ऐसा मानना तो सरासर भ्रम है। आनंद तो केवल भूमा में है - महान से भी महान पदार्थ रूपी आत्मा में ही है।

यही कारण है कि एक ही चीज से एक आदमी को आनंद मिलता है और दूसरे को नहीं। यदि आनंद उस वस्तु का स्वभाव होता, उस वस्तु में ही रहता तो अग्नि की गरमी की तरह सभी को समान रूप से ही उसका अनुभव होता। परंतु ऐसा होता नहीं। खूब भूखे आदमी को भरपेट सत्तूी या सूखी रोटी खिलाइए तो वह आनंद-विह्वल हो उठता है। लेकिन अमीर का तो वही चीजें देख के भी कष्ट होता है, खाने की तो बात ही जाने दीजिए। यदि भौतिक पदार्थ में ही आनंद होता तो ऐसा कदापि न होता। इसी तरह वही हलवा-पूड़ी भूखे को खिलाइए और पेटभरों को भी। भूखे तो खा के आनंद से लोटपोट हो जाएँगे। मगर पेटभरे लोग आनंद मनाने या खुश होने के बदले उसमें हजार ऐब ही निकालेंगे कि पूड़ी जरा नर्म सिंकी, खर न थी, घी अच्छा न था, सूजी खराब थी, कुछ अच्छी गंध आती न थी, मालूम होता है चीनी खाँटी न थी, घी शुद्ध न था, आदि-आदि। क्यों? इसीलिए न, कि भूखे का मन और अंत:करण उस अन्न की रट लगाए एकाग्र था, निश्चल था; फलत: उसे पाते ही उसने आत्मानंद का उक्त रीति से पूर्ण अनुभव किया? मगर पेटभरों का मन तो एकाग्र था नहीं। क्योंकि हलवा-पूड़ी की रट थी नहीं। उनका पेट जो भरा था। इसीलिए वह चीजें मिलने पर भी उनमें कोई फर्क न हुआ। इसीलिए उनका मन आत्मानंद का अनुभव कर न सका। वह तो बंदर की तरह पहले भी दौड़ता रहा और खाने के समय एवं उसके बाद भी। फिर आत्मानुभव हो तो कैसे? वह आनंद मिले तो कैसे?

देखा जाता है कि सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है। उसमें कुछ रस तो होता नहीं। केवल हड्डी की महक से कुत्ते को खयाल होता है कि जिस तरह ताजी और रसीली हड्डी में खून का रस मिलता है उसी तरह इसमें भी मिलेगा। इसीलिए खूब जोर से उसे चबाता है। जब कुछ नहीं मिलता तो और भी जोर लगाता है। नतीजा यह होता है कि हड्डी की नोकों से उसके जबड़े छिल जाते हैं और उनका खून हड्डी में टपक पड़ता है। कुत्ता उसी को चाट के खुश होता है। फिर तो पहले से भी ज्यादा जोर लगाता है। फलत: और भी जख्म होते हैं जो ज्यादा खून टपकाते हैं। यही बात देर तक चलती है जब तक वह थक के छोड़ नहीं देता। कुत्ता अपने ही खून को मिथ्या ही हड़डी का समझ के खुश होता है। क्योंकि अपने खून का स्वाद उसे उस हड़डी के ही बहाने मिल पाता है। इसी से उसे भ्रम होता है कि हड़डी में ही खून है। ठीक इसी तरह हरेक आदमी हमेशा मौका पड़ने पर अपने ही आत्मानंद का अनुभव करता है। मगर स्वतंत्र रूप से ध्याकन और समाधि के द्वारा वह आनंद लूटने का शऊर तो उसे होता नहीं। वह तो विषयों के बहाने ही उसे कभी-कभी लूटता है, उसका अनुभव करता है। इसीलिए उसे भ्रम हो जाता है कि विषयों - भौतिक पदार्थों - में ही सुख है। उसे अनुभव भी उस आत्मानंद के एक तुच्छ कण का ही हो पाता है क्योंकि जरा-सी देर के बाद ही उसका मन फिर चंचल जो हो जाता है। वह उसमें डूब तो सकता नहीं। इसीलिए बृहदारण्यक के चौथे अध्यामय में लिखा है कि इसी परमानंद के एक छींटे से सारे संसार का काम चलता है - 'एषोऽस्य परम आनंद एतस्यैवानंदस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति' (4। 5। 32)।

इस लंबे विवेचन से यह साफ हो गया कि चित्त की प्रसन्नता ही असल चीज है। उसके होते ही परमानंद का अनुभव होने लगता है। फिर तो संसार के सारे कष्ट भाग जाते हैं मन तो एक ही होता है न? और जब वही आत्मानंद में डूब चुका तो दु:खों का अनुभव कौन करे? 'इक मन रह्यो सो गयो स्याम संग कौन भजै जगदीस'? और जब अनुभव होता ही नहीं, तो दु:ख रही क्या चीज? वह अन्न-वस्त्रादि की तरह कोई स्थाई या ठोस चीज तो है नहीं? वह एक विलक्षण प्रकार की मानसिक वृत्ति ही तो है, जिसका अस्तित्व उसके अनुभव के साथ ही रहता है। अनुभव के बिना वह लापता रहता है, लापता हो जाता है। इस तरह जब मन आत्मानंद में डूबा है तो दु:ख रूपी उसकी वृत्ति भी हो इसका मौका ही कहाँ रहा? इसकी फुरसत ही कहाँ रही? जब आत्मज्ञानी या योगी राग-द्वेष में बँधाता नहीं तो उसके मन की एकाग्रता हमेशा ही बनी रहती है। उसमें बाधा तो कभी पड़ती नहीं। वह निरंतर अविच्छिन्न रहती है। इसीलिए आत्मानंद का अनुभव भी निरंतर अविच्छिन्न रहता है। मन वश में है यह तो 'विधेयात्मा' से स्पष्ट ही है। इसीलिए कह दिया है कि सभी तकलीफों का खात्मा हो जाता है। न तो मानसपटल की गंभीरता कभी भंग होती है और न यह बला आती है। इसी अविच्छिन्न गंभीरता का ही नाम प्रसाद है।

जिनने गौर से 'ध्या यतो विषयान्' आदि दो श्लोकों को पढ़ के उसी तरह बाद के 'रागद्वेषवियुक्तैस्तु' आदि दो श्लोकों को भी पढ़ा होगा उन्हें साफ पता लगा होगा कि पहले दो श्लोकों में जो बात शुरू की गई थी कि रागद्वेषादि के वशीभूत होने से कैसी दुर्गति होती है, उसी के बीच में ही बादवाले दो श्लोकों के जरिए सिर्फ एक शंका को दूर किया गया है जो उठ खड़ी हुई थी और जिसका स्वरूप हम अच्छी तरह बता चुके हैं। वह शंका एकाएक उठ गई और मौजूँ भी थी। इसीलिए अपनी बात पूरी न करके पहले उसी का उत्तर देना जरूरी हो गया। तभी तो श्रोता आगे की उस प्रधान विषय से संबंध रखने वाली बातें अच्छी तरह सुन सकेगा। इसीलिए बादवाले श्लोकों के शुरूवाले शब्द के साथ ही 'तु' जुटा हुआ है। इसका अर्थ 'तो' होता है। यह वहीं आता है जहाँ बीच में ही कोई दूसरी या उलटी बात प्रासंगिक रूप में खड़ी हो जाए और जिसका उत्तर देना जरूरी हो जाए। ऐसी बात आगे भी गीता में 'यस्त्वात्मरतिरेव' (3। 17) आदि श्लोकों में आई है। इसीलिए असली प्रसंग अभी पूरा नहीं हुआ है यह तो मानना ही पड़ेगा।

जो लोग ऐसा समझते हों कि वह प्रसंग तो पहले के उन दो ही श्लोकों में पूरा हो गया उन्हें जरा भी सोचने पर अपनी भूल मालूम हो जाएगी। देखिए न? उन दोनों के अंत में यही तो कहा जाता है - 'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति'। मगर क्या अर्थ है? अगर पत्थर में बुद्धि नहीं है तो क्या वह चौपट हो गया? ऐसा कौन मानता है? विपरीत इसके बुद्धि न होने से ही तो उसे तकलीफ-आराम किसी बात का अनुभव नहीं होता। यह तो मानते ही हैं कि यह अनुभव ही तो संसार है, आफत है, बला है, बुरी चीज है। आनंद का अनुभव तो होता भी शायद ही है। होता तो है अधिकतर कष्ट का ही। इसलिए इस दृष्टि से तो पत्थर अच्छा ही ठहरा। और आत्मा तो सर्वत्र है, सबों की है यह कही चुके हैं। फिर पत्थर उससे जुदा कैसे माना जाएगा? इसलिए चौपट होने का मतलब क्या?

और क्या पागलों में मस्ती नहीं होती? उनकी समझ चली गई और वे सभी आफतों से अलग हो गए! मौज में विचरते फिरते हैं! नंगे हैं तो भी फिक्र नहीं है! गालियाँ पड़ रही हैं या आशीर्वाद मिल रहा है। मगर लापरवाह और बेगम हैं! फिर यह कैसे कहा जाए कि बुद्धि या समझ के चले जाने से ही मनुष्य नष्ट हो जाता है? यह भी नहीं कि पागल लोग फौरन मर जाएँ। वे तो बहुत दिनों तक पड़े रहते हैं, जैसे दूसरे लोग। हाँ, यह जरूर होता है कि सभी रोग-बीमारियाँ लापता हो जाती हैं। लेकिन यह तो मनमाँगा वरदान ही समझिए।

एक बात और भी है। माना कि राग-द्वेष छोड़ के और उनके फंदे में हर्गिज न पड़ के ही शरीरोपयोगी पदार्थों का सेवन करना चाहिए। मगर क्या इतने से ही सब आफतें खत्म हो जाएँगी? जन्म-जन्मांतर के संस्कार और राग-द्वेषों के बीज तो अंत:करण में पड़े ही रहते हैं। वह एकाएक तो चले जाते नहीं। इस शरीर में भी अभी-अभी हमने आसक्ति छोड़ के पदार्थों का सेवन शुरू किया है। मगर इससे पहले तो यह बात थी नहीं। तब तो आसक्ति थी ही। उसी के करते दिमाग में पहले के पदार्थ बैठे हैं जो खामख्वाह उमड़ पड़ेंगे और दिक करेंगे। आखिर सपने की तकलीफें ऐसी ही तो होती हैं। दिमाग में बीज रूप में पड़े पदार्थ ही तो सपने में उभड़ के जाने कौन-कौन-सी आफतें ढाते रहते हैं। राग-द्वेष रहित हो के खानपान करने वाले के भी ये सपने कायम ही रहते हैं। वे एकाएक तो मिट जाते नहीं। फिर क्या हो? यह गंदगी धुले कैसे? मिटे कैसे? किस साबुन से अच्छी तरह रगड़ के धोई जाए? यह तो हजारों जन्मों की पुरानी मैल है न? इसीलिए इसे हटाने में बहुत ज्यादा मिहनत, बार-बार की लगातार रगड़ दरकार होगी। सो क्या है यह तो मालूम है नहीं।

और जो यह कह दिया कि स्मृति के नाश से बुद्धि का नाश हो जाता है - 'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाश:', इसके क्या मानी हैं? क्या सचमुच ज्ञान रही नहीं जाता और आदमी पत्थर हो जाता है? यह बात तो ठीक नहीं। क्रोध के बाद भी आदमी तो आदमी ही रहता है। रोज ही यह बात देखी जाती है। फिर पत्थर होने की कौन-सी बात? और अगर यह नहीं है तो बुद्धि के नाश के मानी भी क्या हैं? किस क्रोधी की बुद्धि खत्म हो जाती है? थोड़ी देर तक खास ढंग का कोई परदा-सा पड़ा रहता है। मगर पीछे तो पीछे, उस समय भी समझदारी के दूसरे काम तो वह करता ही रहता है। आखिर उस समय भी उसके सभी काम पागलों जैसे ही होते नहीं। यह ठीक है कि वह कुछ काम उस समय बेविचार के - विवेकशून्य - कर डालता है जिससे मुसीबतें बढ़ जाती हैं। इसी तरह बढ़ती रहती हैं भी। मगर इसे बुद्धिनाश तो कभी नहीं कह सकते। उसकी बेचैनी और परेशानी जरूर बढ़ जाती है, इसमें कोई शक नहीं है। इसके करते यह भी संभव है, उसे आराम न मिले। ऐसा ही प्राय: होता भी है। बेचैनी और परेशानी की आग बढ़ जाने पर चैन कहाँ? आराम कहाँ? मगर वह चौपट नहीं होता। उसे बुद्धि भी रहती ही है।

इस तरह की अनेक बातों के रहते ही, और सुनने वाले के मन में इस प्रकार की शंकाओं के बनी रहने पर भी यह कह देना कि मूल प्रसंग पहले दो श्लोकों में ही पूरा हो गया, कोई मानी नहीं रखता। इसीलिए आगे के श्लोक उसी बात को पकड़ के यही बातें खुद पेश करते और इनसे बचने के उपाय सुझाते हैं। हमें यहीं पर यह जान लेना होगा कि जो कुछ अभी कहा गया है अगले श्लोक उसे मानते हैं। बुद्धिनाश का वही मतलब है जो अभी कहा गया है। उस समय विवेक से काम लिया जा सकता नहीं। इस तरह बेचैनी और मुसीबतें बढ़ती जाती हैं। और जो आदमी मुसीबतों में घिरा है वह तो मरने से भी बदतर है। उससे तो मरा कहीं अच्छा। अशांत जीवन तो जहर ही समझिए, चौपट ही मानिए। आखिर शांति ही तो असल चीज है न?

आगे के श्लोकों ने जन्मजन्मांतर के पुराने संस्कारों और राग-द्वेष के बीजों को जलाने के लिए - इस गहरी से गहरी गंदगी को मिटाने के लिए - जिस नए साबुन का नाम लिया है, जिस लगातार चिरकालीन रगड़ का आविष्कार किया है उसे भावना कहते हैं। यही नाम उसे दिया भी है। जैसे रंग को गाढ़ा करके कपड़े पर चढ़ाने में कपड़े को रह-रह के रंग में डुबोते और सुखाते हैं। सोने को भी रह-रह के गर्म करके पानी में डुबाते और इस तरह उसे टंक बनाते हैं। मामूली लोहे को भी बार-बार आँच दे के पीटते और पानी में डुबाते हैं ताकि इस्पात हो जाए। ठीक यही बात रागद्वेषादि मैलों को धो बहाने के लिए भी की जाती है, करनी पड़ती है। बार-बार सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करके मन को रोकते और आत्मतत्त्व-में ही लगाते हैं। हर मौके पार सजग रह के यही करते हैं। इसे ही पातंजल योग में ध्यामन, धारणा और समाधि कहा है। इन तीनों को मिला के संयम नाम दिया है - 'त्रयमेकत्र संयम:' (3। 4) गीता ने भी आगे 'संयमी' (2। 69) में यही कहा है। इनमें ध्यारन नीचे दर्जे की चीज है। उसके बाद धारणा आती है। ध्याहन करते-करते मजबूती आने पर धारणा और उसकी मजबूती होने पर समाधि का समय आता है। इन तीनों के पूरा होने पर - संयम की पूर्णता हो जाने पर - अंत:करण की, बुद्धि की सारी की सारी युग-युगांतर की मैल जल-धुल जाती है। फिर तो वह निर्मल हीरे की ही तरह धप-धप हो जाती है। इसके बाद अखंड विज्ञान का व्यापक एवं सनातन - अचल - प्रकाश होता है। इसीलिए पतंजलि ने भी कहा है - 'तज्जयात् प्रज्ञालोक:' (3। 5)। उस प्रचंड प्रकाश - उस द्वादश आदित्य - के सामने अज्ञान और अंधकार का पता कहाँ?

इसी संयम, इसी भावना के करते मन आत्मा के ही रंग में रंग जाता है - कभी भी इधर-उधर टस से मस नहीं होता। उसमें अब ऐसा करने की योग्यता एवं शक्ति ही नहीं रह जाती है। इसीलिए निर्वात समुद्र के जल की तरह एकरस, गंभीर और शांत रहता है। उसकी यह निश्चलता, निष्क्रियता, शांति अखंड हो जाती है। फलत: योगी उसमें लहलहाते आत्मानंद का अनुभव दिन-रात सोते-जागते करता ही रहता है। एक क्षण के लिए भी उसके सामने से वह आनंद - वह मजा - ओझल हो पाता नहीं, हो सकता नहीं। मगर जो यह नहीं कर सकता है; जिसे भावना का अवसर नहीं मिला वह हमेशा बेचैन और परेशान रहता है, त्यंत अशांत रहता है। फिर उसे सुख कहाँ? उसे सुख मयस्सर क्यों हो?

हमें यह भी जान लेना होगा कि इस भावना के लिए विवेक की तो जरूरत हई। वही तो इसके मूल में है। जब तक हमें बखूबी आत्मतत्त्व का और रागद्वेषादि का पता न चल जाए और यह न मालूम हो जाए कि इनमें कैसे फँसते हैं तब तक हम मन को रँगेंगे कैसे? तब तक उसे सब आफतों से खींच के आत्मा या कर्म में ही लगाएँगे कैसे? सभी बातें जान लेने पर ही तो आगे कदम बढ़ायेंगे। इसीलिए भावना के पहले बुद्धि या विवेक जरूरी है। रँगने की सारी प्रक्रिया अच्छी तरह जब तक न जाने सुंदर रंग चढ़ाएगा कैसे?

मगर यही बुद्धि चौपट होती है जिस रीति से उसी का वर्णन पहले 'ध्याहयतो विषयान्' में किया गया है। इसलिए वहाँ कहे गए विषयों के खयाल से लेकर स्मृति-विभ्रम तक की सारी बातें, जिनका परिणाम बुद्धि नाश है, एक ही जगह मिला के योगभ्रष्टता कहते हैं। छठे अध्या य में जिस योगभ्रष्ट और योगभ्रष्टता की बात कही गई है वह भी कुछ इसी तरह की चीज है। उसमें पातंजल योग भी भले ही आ जाए। मगर यह तो हई, यह बात पक्की है। यदि हम गौर से उन सभी बातों को देखें जो इन दो श्लोकों में लिखी हैं तो हमें मानना ही होगा कि जो लोग गीतोक्त योगी नहीं होते हैं, मुक्त नहीं होते हैं, किंतु उस स्थान से गिर पड़ते और पतित हो जाते हैं - च्युत और अयुक्त हो जाते हैं, उन्हीं में ये बातें अक्षरश: पाई जाती हैं। फलत: उन्हें बुद्धि होती ही नहीं। फिर भावना कैसी? भावना के अभाव में शांति भी कहाँ? और जब शांति ही नहीं, तो सुख कैसा? आनंद कहाँ? यही बात आगे के 66वें श्लोक में कहने के उपरांत बादवाले दो श्लोकों में इसी का विवरण दे के उपसंहार किया है।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्॥ 66 ॥

अयुक्त को बुद्धि ही नहीं होती। जिसे बुद्धि ही न हो उसे भावना भी नहीं होती। जिसे भावना न हो उसे शांति नहीं मिलती। जिसे शांति ही नहीं उसे सुख कहाँ? 66।

यहाँ एक जरा-सी बात सोचने की है। श्लोक के देखने से पता चलता है कि यहाँ कोई शृंखला है जिसकी लड़ें एक के बाद दीगरे आई हैं। यदि नीचे से ही शुरू करें तो सुख के पहले शांति तथा उसके पहले भावना की तीन लड़ें मिल जाती हैं। शुरू में भी योग के बाद बुद्धि के आने से योग और बुद्धि की भी लड़ें जुटती हैं। मगर बीच में 'न चाबुद्धस्य भावना' कहने के बजाए 'न चायुक्तस्य भावना' कह दिया है, जिससे बुद्धि के साथ भावना की लड़ी जुट जाने से आगे भावना से शांति की जुटान आदि को ले के पूरी शृंखला तैयार हो जाने के बजाए टूट-सी जाती है, प्रसंग विशृंखल हो जाता है। यह कुछ ठीक जँचता भी नहीं कि योग का बुद्धि से और बुद्धि का ही भावना से सीधा संबंध जोड़ने के बजाए योग का ही सीधा संबंध दोनों से जुटे। यह असंभव-सा भी लगता है। क्योंकि यदि योग जुट चुका है बुद्धि के साथ, तो फिर भावना से कैसे जुटेगा? और अगर ऐसा मानें भी तो फिर शांति और सुख के साथ भी उसी को सीधे क्यों न जोड़ा जाए? इसीलिए हमने दूसरे अयुक्त शब्द का अबुद्ध ही अर्थ किया है और कहा है कि बिना बुद्धि के भावना होती ही नहीं। असल में, जैसा कि पहले ही कह चुके हैं, योग में भी बुद्धि ही वास्तविक चीज है। इसीलिए 'बुद्धियोगाद्धनंजय' (2। 49) में बुद्धि को ही योग कहा भी है। इसीलिए जान पड़ता है, यहाँ भी 'अबुद्धस्य' की जगह 'अयुक्तस्य' कह दिया है। ताकि बुद्धि पर ही जोर दिया जा सके।

इंद्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनु विधीयते।

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ 67 ॥

क्योंकि (विषयों में) रमने वाली इंद्रियों के पीछे जब मन लग जाता - चल जाता - है तो (अपने साथ ही) बुद्धि को भी (विवश करके) वैसे ही खींच लेता है जैसे मझधार में पड़ी नाव को वायु (विवश करके इधर-उधर खींचता और अंत में डुबो देता है)। 67।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।






   0
0 Comments